दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
मौजज़न रहता है दरिया के किनारे दरिया
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हैं वो सूफ़ी जो कभी नाला-ए-नाक़ूस सुना
ख़ाक में मुझ को मिला के वो सनम कहता है
सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी
बंदा अब ना-सुबूर होता है
फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा
आप को ग़ैर बहुत देखते हैं
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर