फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
मस्जिदें सूनी पड़ी हैं भट्टियाँ आबाद हैं
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कोई सूरत से गर सफ़ा हो
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
दश्त-ए-जुनूँ में आ गईं आँखें जो उन की याद
मजनूँ नहीं कि एक ही लैला के हो रहें
ऐ सबा क़िल'अ-ए-हस्ती से जो दम घबराया
आप को ग़ैर बहुत देखते हैं
कुदूरत नहीं अपनी तब्-ए-रवाँ में
कलेजा काँपता है देख कर इस सर्द-मेहरी को
चार उंसुर के सब तमाशे हैं