मजनूँ नहीं कि एक ही लैला के हो रहें
रहता है अपने साथ नया इक निगार रोज़
Rahat Indori
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Gulzar
Wasi Shah
Habib Jalib
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(815) Peoples Rate This
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
बात भी आप के आगे न ज़बाँ से निकली
इतनी तो दीद-ए-इश्क़ की तासीर देखिए
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें
महशर का हमें क्या ग़म इस्याँ किसे कहते हैं
सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ
बाग़-ए-आलम में है बे-रंग बयान-ए-वाइ'ज़
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए