मेरे अशआ'र से मज़मून-ए-रुख़-ए-यार खुला
बे-अहादीस नहीं मतलब-ए-क़ुरआँ निकला
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बात भी आप के आगे न ज़बाँ से निकली
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
ख़ाक में मुझ को मिला के वो सनम कहता है
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
तुम्हारी ज़ुल्फ़ न गिर्दाब-ए-नाफ़ तक पहुँची
क़ैद-ए-मज़हब वाक़ई इक रोग ही
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा
आप ही अपने ज़रा जौर-ओ-सितम को देखें
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है