तुम्हारी ज़ुल्फ़ न गिर्दाब-ए-नाफ़ तक पहुँची
हुई न चश्मा-ए-हैवाँ से फ़ैज़-याब घटा
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तिरी तलाश में मह की तरह मैं फिरता हूँ
बंदा अब ना-सुबूर होता है
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
नहीं है हाजियों को मय-कशी की कैफ़िय्यत
कोई सूरत से गर सफ़ा हो
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
मेरे अशआ'र से मज़मून-ए-रुख़-ए-यार खुला
दिल-ए-पुर दाग़ बाग़ किस का है