अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
इक बात है जिस का कई सूरत से बयाँ है
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सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ
इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
आप अपनी बेवफ़ाई देखिए
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
तुम्हारी ज़ुल्फ़ न गिर्दाब-ए-नाफ़ तक पहुँची
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी
आया जो मौसम-ए-गुल तो ये हिसाब होगा