अब तो साहब की हुई ख़ातिर जम्अ'
सन चुके हाल-ए-परेशाँ मेरा
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कोई सूरत से गर सफ़ा हो
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
कुदूरत नहीं अपनी तब्-ए-रवाँ में
बंदा अब ना-सुबूर होता है
आप को ग़ैर बहुत देखते हैं
फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
दिल है ग़िज़ा-ए-रंज जिगर है ग़िज़ा-ए-रंज
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
क़ैद-ए-मज़हब वाक़ई इक रोग ही
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
जो अदू-ए-बाग़ हो बरबाद हो
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें