ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
पर-ए-पर्वाज़ में तस्बीह का डोरा बाँधा
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तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
कोई सूरत से गर सफ़ा हो
मेरे बग़ल में रह के मुझी को क्या ज़लील
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल
मादूम हुए जाते हैं हम फ़िक्र के मारे
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर
क़ैद-ए-मज़हब वाक़ई इक रोग ही
आप अपनी बेवफ़ाई देखिए
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
देखिए आज वो तशरीफ़ कहाँ फ़रमाएँ