मादूम हुए जाते हैं हम फ़िक्र के मारे
मज़मूँ कमर-ए-यार का पैदा नहीं होता
Wasi Shah
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साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
जब मैं रोता हूँ तो अल्लाह रे हँसना उन का
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
काबा बनाइए कि कलीसा बनाइए
रोज़ ओ शब फ़ुर्क़त-ए-जानाँ में बसर की हम ने
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
नफ़्स नमरूद है क्या होना है
इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
जो अदू-ए-बाग़ हो बरबाद हो
मेरे बग़ल में रह के मुझी को क्या ज़लील