काबा बनाइए कि कलीसा बनाइए
दिल सा मकाँ हवाले किया है जनाब के
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ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
कुदूरत नहीं अपनी तब्-ए-रवाँ में
नफ़्स नमरूद है क्या होना है
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना
इन की मिज़ा है काबा-ए-अबरू में मोतकिफ़
ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल