पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज
पंजाबी बात करते हैं पश्तू ज़बान में
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हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
फ़स्ल-ए-गुल ही ज़ाहिदों को ग़म ही मय-कश शाद हैं
क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा
बच कर कहाँ मैं उन की नज़र से निकल गया
बंदा अब ना-सुबूर होता है
अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर
बोसा-ए-सब्ज़ा-ए-ख़त दे के गुनहगार किया