बोसा-ए-सब्ज़ा-ए-ख़त दे के गुनहगार किया
तू ने काँटों में मुझे ऐ गुल-ए-रअना खींचा
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जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
महशर का हमें क्या ग़म इस्याँ किसे कहते हैं
दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
तिरी तलाश में मह की तरह मैं फिरता हूँ
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
कोई सूरत से गर सफ़ा हो