चार उंसुर के सब तमाशे हैं
वाह ये चार बाग़ किस का है
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ऐ सबा क़िल'अ-ए-हस्ती से जो दम घबराया
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
ख़ाक में मुझ को मिला के वो सनम कहता है
वाइ'ज़ के मैं ज़रूर डराने से डर गया
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए
आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
मादूम हुए जाते हैं हम फ़िक्र के मारे
मय पी के ईद कीजिए गुज़रा मह-ए-सियाम