हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए
फ़ुर्सत न आसमाँ को मिली अपने काम से
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जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें
इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर
अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा
चार उंसुर के सब तमाशे हैं
बंदा अब ना-सुबूर होता है
मेरे अशआ'र से मज़मून-ए-रुख़-ए-यार खुला
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त