तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
फ़लक को चाहिए ग़ाज़ा रुख़-ए-क़मर के लिए
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हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए
बाग़-ए-आलम में है बे-रंग बयान-ए-वाइ'ज़
उन की रफ़्तार से दिल का अजब अहवाल हुआ
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी
कलेजा काँपता है देख कर इस सर्द-मेहरी को
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
नहीं है हाजियों को मय-कशी की कैफ़िय्यत
दिलों में गब्र-ओ-मुसलमाँ ज़रा ख़याल करें
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
बच कर कहाँ मैं उन की नज़र से निकल गया