तिरी तलाश में मह की तरह मैं फिरता हूँ
कहाँ तू रात को ऐ आफ़्ताब रहता है
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उन की रफ़्तार से दिल का अजब अहवाल हुआ
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
महशर का हमें क्या ग़म इस्याँ किसे कहते हैं
रोज़ ओ शब फ़ुर्क़त-ए-जानाँ में बसर की हम ने
हैं वो सूफ़ी जो कभी नाला-ए-नाक़ूस सुना
क्या बनाया है बुतों ने मुझ को
ताइर-ए-अक़्ल को मा'ज़ूर कहा ज़ाहिद ने
ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल
दिल है ग़िज़ा-ए-रंज जिगर है ग़िज़ा-ए-रंज
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला