क्या बनाया है बुतों ने मुझ को
नाम रक्खा है मुसलमाँ मेरा
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तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
नहीं है हाजियों को मय-कशी की कैफ़िय्यत
साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
क़ैद-ए-मज़हब वाक़ई इक रोग ही
अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
काबा बनाइए कि कलीसा बनाइए
किस मुँह से कहें गुनाह क्या हैं
फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी
हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए