साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
अपने साक़ी को जो हम रिंद दुआ देते हैं
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रंग है ऐ साक़ी-ए-सरशार क़ैसर-बाग़ में
अदू-ए-जाँ बुत-ए-बे-बाक निकला
पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज
उठा दी क़ैद-ए-मज़हब दिल से हम ने
ऐ सबा जज़्ब पे जिस दम दिल-ए-नाशाद आया
अब तो साहब की हुई ख़ातिर जम्अ'
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
जब मैं रोता हूँ तो अल्लाह रे हँसना उन का
बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
इतनी तो दीद-ए-इश्क़ की तासीर देखिए
दश्त-ए-जुनूँ में आ गईं आँखें जो उन की याद