दश्त-ए-जुनूँ में आ गईं आँखें जो उन की याद
भागा में ख़ाक डाल के चश्म-ए-ग़ज़ाल में
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साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा
बे-ताबी-ए-दिल ने ज़ार-पा कर
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
न पढ़ा यार ने अहवाल-ए-शिकस्ता मेरा
क्या बनाया है बुतों ने मुझ को
उल्फ़त-ए-कूचा-ए-जानाँ ने किया ख़ाना-ख़राब
अब तो साहब की हुई ख़ातिर जम्अ'
आया जो मौसम-ए-गुल तो ये हिसाब होगा
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
बच कर कहाँ मैं उन की नज़र से निकल गया
पाया है इस क़दर सुख़न-ए-सख़्त ने रिवाज