रोज़ ओ शब फ़ुर्क़त-ए-जानाँ में बसर की हम ने
तुझ से कुछ काम न ऐ गर्दिश-ए-दौराँ निकला
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आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना
बोसा-ए-सब्ज़ा-ए-ख़त दे के गुनहगार किया
हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए
दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
तुम्हारी ज़ुल्फ़ न गिर्दाब-ए-नाफ़ तक पहुँची
हुआ धूप में भी न कम हुस्न-ए-यार
ख़ाक में मुझ को मिला के वो सनम कहता है
साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
मादूम हुए जाते हैं हम फ़िक्र के मारे
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
आया जो मौसम-ए-गुल तो ये हिसाब होगा