कुदूरत नहीं अपनी तब्-ए-रवाँ में
बहुत साफ़ बहता है दरिया हमारा
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ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
मजनूँ नहीं कि एक ही लैला के हो रहें
कलेजा काँपता है देख कर इस सर्द-मेहरी को
अब तो साहब की हुई ख़ातिर जम्अ'
साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
नफ़्स नमरूद है क्या होना है
तिरी तलाश में मह की तरह मैं फिरता हूँ
मादूम हुए जाते हैं हम फ़िक्र के मारे
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए