कलेजा काँपता है देख कर इस सर्द-मेहरी को
तुम्हारे घर में क्या आए कि हम कश्मीर में आए
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हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
उन की रफ़्तार से दिल का अजब अहवाल हुआ
ऐ सबा क़िल'अ-ए-हस्ती से जो दम घबराया
बाक़ी रहा न फ़र्क़ ज़मीन आसमान में
दिल-ए-पुर दाग़ बाग़ किस का है
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
इन की मिज़ा है काबा-ए-अबरू में मोतकिफ़
आई ऐ गुल-एज़ार क्या कहना
मजनूँ नहीं कि एक ही लैला के हो रहें
सज दिया हैरत-ए-उश्शाक़ ने इस बुत का मकाँ
न पढ़ा यार ने अहवाल-ए-शिकस्ता मेरा
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं