इन की मिज़ा है काबा-ए-अबरू में मोतकिफ़
खींचा कभी न तीर ने चिल्ला कमान में
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क़ैद-ए-मज़हब वाक़ई इक रोग ही
चार उंसुर के सब तमाशे हैं
आप अपनी बेवफ़ाई देखिए
दोनों चश्मों से मरी अश्क बहा करते हैं
इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
ऐ सबा क़िल'अ-ए-हस्ती से जो दम घबराया
फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी
मेरे अशआ'र से मज़मून-ए-रुख़-ए-यार खुला
जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर
हम भी ज़रूर कहते किसी काम के लिए