ऐ सबा क़िल'अ-ए-हस्ती से जो दम घबराया
बढ़ के दो-चार क़दम मौत का आगा बाँधा
Rahat Indori
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उन की रफ़्तार से दिल का अजब अहवाल हुआ
तुम हर इक रंग में ऐ यार नज़र आते हो
चश्म वा रह गई देखा जो तिलिस्मात-ए-जहाँ
आशिक़ हैं हम को हर्फ़-ए-मोहब्बत से काम है
ख़ुद-रफ़्तगी है चश्म-ए-हक़ीक़त जो वा हुई
दिल-ए-पुर दाग़ बाग़ किस का है
आप को ग़ैर बहुत देखते हैं
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
जब मैं रोता हूँ तो अल्लाह रे हँसना उन का
बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी
बात भी आप के आगे न ज़बाँ से निकली
का'बे की सम्त सज्दा किया दिल को छोड़ कर