साकिन-ए-दैर हूँ इक बुत का हूँ बंदा ब-ख़ुदा
ख़ुद वो काफ़िर हैं जो कहते हैं मुसलमाँ मुझ को
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बोसा-ए-सब्ज़ा-ए-ख़त दे के गुनहगार किया
हैं वो सूफ़ी जो कभी नाला-ए-नाक़ूस सुना
ऐ सनम सब हैं तिरे हाथों से नालाँ आज-कल
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव
जो अदू-ए-बाग़ हो बरबाद हो
बच कर कहाँ मैं उन की नज़र से निकल गया
साक़िया अब के बड़े ज़ोरों पे हैं हम मय-परस्त
दाग़-ए-जुनूँ दिमाग़-ए-परेशाँ में रह गया
जब उस बे-मेहर को ऐ जज़्ब-ए-दिल कुछ जोश आता है
नहीं है हाजियों को मय-कशी की कैफ़िय्यत
मेरे बग़ल में रह के मुझी को क्या ज़लील
क़ब्र पर बाद-ए-फ़ना आइएगा