मेरे बग़ल में रह के मुझी को क्या ज़लील
नफ़रत सी हो गई दिल-ए-ख़ाना-ख़राब से
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अश्क-उफ़्तादा नज़र आते हैं सारे दरिया
तू अपने पाँव की मेहंदी छुड़ा के दे ऐ महर
रंग है ऐ साक़ी-ए-सरशार क़ैसर-बाग़ में
हम रिंद-ए-परेशाँ हैं माह-ए-रमज़ाँ है
आदम से बाग़-ए-ख़ुल्द छुटा हम से कू-ए-यार
बुत-परस्ती से न तीनत मिरी ज़िन्हार फिरी
आप को ग़ैर बहुत देखते हैं
तिरी तलाश में मह की तरह मैं फिरता हूँ
अहवाल-ए-मज़ाहिब से ये साबित हुआ हम को
दिल में इक दर्द उठा आँखों में आँसू भर आए
साफ़ क़ुलक़ुल से सदा आती है आमीन आमीन
देख कर ख़ुश-रंग उस गुल-पैरहन के हाथ पाँव