दृश्य Poetry (page 5)

वाहिमा

यूसुफ़ तक़ी

सारा बदन है ख़ून से क्यूँ तर उसे दिखा

युसूफ़ जमाल

मिला है तपता सहरा देखने को

यज़दानी जालंधरी

सहने को तो सह जाएँ ग़म-ए-कौन-ओ-मकाँ तक

यावर अब्बास

मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है

यासमीन हमीद

कोई पूछे मिरे महताब से मेरे सितारों से

यासमीन हमीद

दरिया की रवानी वही दहशत भी वही है

यासमीन हमीद

ऐसा भी नहीं दर्द ने वहशत नहीं की है

यशब तमन्ना

पलकों पे रुका क़तरा-ए-मुज़्तर की तरह हूँ

यासीन अफ़ज़ाल

सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ

याक़ूब यावर

मिरी दुआओं की सब नग़्मगी तमाम हुई

याक़ूब यावर

लर्ज़ां तरसाँ मंज़र चुप

याक़ूब यावर

तूफ़ाँ की ज़द पे अपना सफ़ीना जब आ गया

याक़ूब उस्मानी

वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला

यगाना चंगेज़ी

तर्ग़ीब

वज़ीर आग़ा

सारी उम्र गँवा दी हम ने

वज़ीर आग़ा

इक बे-अंत वजूद

वज़ीर आग़ा

नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है

वासिफ़ देहलवी

कैसा मफ़्तूह सा मंज़र है कई सदियों से

वसी शाह

डर मौत का न ख़ौफ़ किसी देवता का था

वसीम मीनाई

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे

वसीम बरेलवी

मेरा किया था मैं टूटा कि बिखरा रहा

वसीम बरेलवी

मैं आसमाँ पे बहुत देर रह नहीं सकता

वसीम बरेलवी

चाँद का ख़्वाब उजालों की नज़र लगता है

वसीम बरेलवी

कोई अपने वास्ते महशर उठा कर ले गया

वलीउल्लाह वली

फिर वही रेग-ए-बयाबाँ का है मंज़र और हम

वाली आसी

मैं जब छोटा सा था काग़ज़ पे ये मंज़र बनाता था

वाली आसी

दिन भर ग़मों की धूप में चलना पड़ा मुझे

वाली आसी

बहुत दिन से कोई मंज़र बनाना चाहते हैं हम

वाली आसी

जहालत का मंज़र जो राहों में था

वकील अख़्तर

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