दृश्य Poetry (page 4)

गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर

ज़फ़र ताबिश

बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं

ज़फ़र ताबिश

तमाम रंग जहाँ इल्तिजा के रक्खे थे

ज़फ़र मुरादाबादी

निगाह-ए-हुस्न-ए-मुजस्सम अदा को छूते ही

ज़फ़र मुरादाबादी

कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए

ज़फ़र मुरादाबादी

बस इक तुम ही नहीं मंज़र में वर्ना क्या नहीं है

ज़फ़र ख़ान नियाज़ी

मुझे लगते हैं प्यारे तितलियाँ जुगनू परिंदे

ज़फ़र ख़ान नियाज़ी

निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता

ज़फ़र कमाली

फूला-फला शजर तो समर पर भी आएगा

ज़फ़र कलीम

खुल गईं आँखें कि जब दुनिया का सच हम पर खुला

ज़फ़र कलीम

इन दिनों मैं ग़ुर्बतों की शाम के मंज़र में हूँ

ज़फ़र कलीम

हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना

ज़फ़र कलीम

दरिया गुज़र गए हैं समुंदर गुज़र गए

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

चमका जो तीरगी में उजाला बिखर गया

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब

ज़फ़र इक़बाल

ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ

ज़फ़र इक़बाल

वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था

ज़फ़र इक़बाल

थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते

ज़फ़र इक़बाल

बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे

ज़फ़र इक़बाल

अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था

ज़फ़र इक़बाल

क्या जाने कब धरती पर सैलाब का मंज़र हो जाए

ज़फर इमाम

साहिल पर दरिया की लहरें सज्दा करती रहती हैं

ज़फर इमाम

रौशनी परछाईं पैकर आख़िरी

ज़फ़र गोरखपुरी

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

ज़फ़र गोरखपुरी

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

ज़फ़र गोरखपुरी

जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे

ज़फ़र गोरखपुरी

चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद

ज़फ़र गोरखपुरी

अश्क-ए-ग़म आँख से बाहर भी नहीं आने का

ज़फ़र गोरखपुरी

हालत-ए-बीमार-ए-ग़म पर जिस को हैरानी नहीं

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

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