क्या जाने कब धरती पर सैलाब का मंज़र हो जाए
हर-दम ये मजबूर निगाहें वर्षा करती रहती हैं
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बात पहुँचे समाअत को तासीर दे किस तरह
जल्द मंज़िल तक पहुँचने का जुनूँ उस को रहा
मैं ही दस्तक देने वाला मैं ही दस्तक सुनने वाला
धूप निकली कभी बादल से ढकी रहती है
भले ही आँख मिरी सारी रात जागेगी
देख लेते हैं अंधेरे में भी रस्ता अपना
इक नदी में सैकड़ों दरिया की तुग़्यानी मिली
दर्द बहता है दरिया के सीने में पानी नहीं
जीवन का संगीत अचानक अंतिम सुर को छू लेता है
साफ़ जज़्बों के हवाले से तो ग़म हैं लेकिन
उजाला अपने घरौंदे में रह गया तो रात