मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है
मुझे आवाज़ सी आती है क्यूँ उजड़े दयारों से
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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
रस्ते से मिरी जंग भी जारी है अभी तक
मैं अब उस हर्फ़ से कतरा रही हूँ
जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या
इतनी बे-रब्त कहानी नहीं अच्छी लगती
इक बे-पनाह रात का तन्हा जवाब था
अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
किसी के नर्म लहजे का क़रीना
दरिया की रवानी वही दहशत भी वही है
ज़रा धीमी हो तो ख़ुशबू भी भली लगती है