अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
तो फिर साए से अपने प्यार करना चाहिए था
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उस इमारत को गिरा दो जो नज़र आती है
हमें ख़बर थी बचाने का उस में यारा नहीं
मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है
क्यूँ ढूँडने निकले हैं नए ग़म का ख़ज़ीना
रस्ते से मिरी जंग भी जारी है अभी तक
इक बे-पनाह रात का तन्हा जवाब था
दरिया की रवानी वही दहशत भी वही है
जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या