समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
मगर दरियाओं को तो पार करना चाहिए था
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इक बे-पनाह रात का तन्हा जवाब था
मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
अपनी निगाह पर भी करूँ ए'तिबार क्या
ज़रा धीमी हो तो ख़ुशबू भी भली लगती है
जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
हमें ख़बर थी बचाने का उस में यारा नहीं
कोई पूछे मिरे महताब से मेरे सितारों से
इतने आसूदा किनारे नहीं अच्छे लगते
अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है
अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
उस के शिकस्ता वार का भी रख लिया भरम