सबा Poetry (page 13)

तेरे होने से

हबीब जालिब

फिर दिल से आ रही है सदा उस गली में चल

हबीब जालिब

न डगमगाए कभी हम वफ़ा के रस्ते में

हबीब जालिब

शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा

हबीब मूसवी

फ़रियाद भी मैं कर न सका बे-ख़बरी से

हबीब मूसवी

लू हो सबा हो या पुर्वाई सब के साथ चलो

हबीब फख़री

लू हो सबा हो या पुर्वाई सब के साथ चलो

हबीब फख़री

बीते रिश्ते तलाश करती है

गुलज़ार

ये तिलिस्म-ए-मौसम-ए-गुल नहीं कि ये मोजज़ा है बहार का

गुलनार आफ़रीन

शजर-ए-उम्मीद भी जल गया वो वफ़ा की शाख़ भी जल गई

गुलनार आफ़रीन

लब-ए-जाँ-बख़्श पे दम अपना फ़ना होता है

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

याद अश्कों में बहा दी हम ने

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

हम ने तो बे-शुमार बहाने बनाए हैं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

उन से कहा कि सिद्क़-ए-मोहब्बत मगर दरोग़

ग़ुलाम मौला क़लक़

मिरे पहलू से जो निकले वो मिरी जाँ हो कर

ग़ुलाम भीक नैरंग

मिरे मुद्दआ-ए-उल्फ़त का पयाम बन के आई

ग़ुबार भट्टी

आँधी में भी चराग़ मगन है सबा के साथ

ग़ौसिया ख़ान सबीन

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ग़ालिब

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ग़ालिब

तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं

ग़ालिब

रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़

ग़ालिब

फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब

ग़ालिब

ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है

ग़ालिब

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना

ग़ालिब

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

ग़ालिब

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे

ग़ालिब

ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ

ग़ालिब

छू भी तो नहीं सकते हम मौज-ए-सबा बन कर

फ़ुज़ैल जाफ़री

वह ज़ुल्म-ओ-सितम ढाए और मुझ से वफ़ा माँगे

फ़िरदौस गयावी

जुगनू

फ़िराक़ गोरखपुरी

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