साइबाँ Poetry (page 2)
बराए नाम सही साएबाँ ज़रूरी है
सग़ीर मलाल
वो जो ख़ुद अपने बदन को साएबाँ करता नहीं
राशिद मुफ़्ती
निकल कर साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से
रसा चुग़ताई
यास-ओ-हिरास-ओ-जौर-ओ-जफ़ा से अलग-थलग
राही फ़िदाई
ये किस से चाँदनी में हम ब-ज़ेर-ए-आसमाँ लिपटे
इंशा अल्लाह ख़ान
साएबान
इफ़्तेख़ार जालिब
ये नक़्श हम जो सर-ए-लौह-ए-जाँ बनाते हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
अपने एहसानों का नीला साएबाँ रहने दिया
इबरत मछलीशहरी
मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
इब्राहीम अश्क
फिर शाम हुई
इब्न-ए-इंशा
जिसे मिलें वही तन्हा दिखाई देता है
हीरानंद सोज़
मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है
हसन अब्बास रज़ा
कर्ब वहशत उलझनें और इतनी तन्हाई कि बस
हमदुन उसमानी
बे-सूद एक सिलसिला-ए-इम्तिहाँ न खोल
हकीम मंज़ूर
ख़ुदा-ए-बर्तर ने आसमाँ को ज़मीन पर मेहरबाँ किया है
ग़ुलाम हुसैन साजिद
सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला
फ़ारूक़ शफ़क़
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
एजाज़ गुल
ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है
एजाज़ गुल
लाख कुछ न हम कहते बे-ज़बाँ रहे होते
चरण सिंह बशर
सोते में मुस्कुराते बच्चे को देख कर
बिलाल अहमद
सर पे इक साएबाँ तो रहने दे
बशीर मुंज़िर
जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह
बदनाम नज़र
दीवार-ओ-दर का नाम था कोई मकाँ न था
बदनाम नज़र
अहद-नामा-ए-इमराेज़
अज़ीज़ क़ैसी
वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन
अज़ीज़ हामिद मदनी
निसार यूँ तो हुआ तुझ पे नक़्द-ए-जाँ क्या क्या
अज़ीज़ हामिद मदनी
डूब कर ख़ुद में कभी यूँ बे-कराँ हो जाऊँगा
आज़ाद गुलाटी
अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया
आज़ाद गुलाटी
कभी कभार भी कब साएबाँ किसी ने दिया
अतहर नासिक
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