वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन
पुकारते हैं मुसाफ़िर को साएबाँ क्या क्या
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मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
मिरी आँखें गवाह-ए-तल'अत-ए-आतिश हुईं जल कर
कुछ अब के हम भी कहें उस की दास्तान-ए-विसाल
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
गहरे सुर्ख़ गुलाब का अंधा बुलबुल साँप को क्या देखेगा
तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे
इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया