वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
दूर है मौज-ए-बला और किनारे हुए लोग
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ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है
नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
करम का और है इम्काँ खुले तो बात चले
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
बहार चाक-ए-गिरेबाँ में ठहर जाती है
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
न फ़ासले कोई निकले न क़ुर्बतें निकलीं
सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए
हवा आशुफ़्ता-तर रखती है हम आशुफ़्ता-हालों को