मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
मुद्दत हुई है जिस से मुझे अब मिले हुए
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जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए
वफ़ा की रात कोई इत्तिफ़ाक़ थी लेकिन
महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
जी-दारो! दोज़ख़ की हवा में किस की मोहब्बत जलती है
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते