जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
वफ़ा के नाम से वो भी फ़रेब खा जाता
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इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
अभी तो कुछ लोग ज़िंदगी में हज़ार सायों का इक शजर हैं
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
जब आई साअत-ए-बे-ताब तेरी बे-लिबासी की
वो साअ'त सूरत-ए-चक़माक़ जिस से लौ निकलती है
उन को ऐ नर्म हवा ख़्वाब-ए-जुनूँ से न जगा
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
तिलिस्म-ए-ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा ओ दाम-ए-बर्दा-फ़रोश
एक-आध हरीफ़-ए-ग़म-ए-दुनिया भी नहीं था