कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते
तुम से तो किसी बात का पर्दा भी नहीं था
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एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
ख़लल-पज़ीर हुआ रब्त-ए-मेहर-ओ-माह में वक़्त
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया
सुलग रहा है उफ़ुक़ बुझ रही है आतिश-ए-महर
ज़हर का जाम ही दे ज़हर भी है आब-ए-हयात
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं