नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
ऐ हम-सफ़ीर आतिश-ए-गुल तेज़ अभी से है
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ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
हवा आशुफ़्ता-तर रखती है हम आशुफ़्ता-हालों को
ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
निसार यूँ तो हुआ तुझ पे नक़्द-ए-जाँ क्या क्या
जो बात दिल में थी उस से नहीं कही हम ने
मिरा चाक-ए-गिरेबाँ चाक-ए-दिल से मिलने वाला है
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
ऐ शहर-ए-ख़िरद की ताज़ा हवा वहशत का कोई इनआम चले