शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
इक इशारे से तलब करता है वीराना मुझे
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बहार चाक-ए-गिरेबाँ में ठहर जाती है
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
ख़त्म हुई शब-ए-वफ़ा ख़्वाब के सिलसिले गए
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
महक में ज़हर की इक लहर भी ख़्वाबीदा रहती है
एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
ये फ़ज़ा-ए-साज़-ओ-मुज़रिब ये हुजूम-ताज-ए-दाराँ
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर