सदियों में जा के बनता है आख़िर मिज़ाज-ए-दहर
'मदनी' कोई तग़य्युर-ए-आलम है बे-सबब
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एक ही शहर में रहते बस्ते काले कोसों दूर रहा
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
इक ख़्वाब-ए-आतिशीं का वो महरम सा रह गया
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
सलीब ओ दार के क़िस्से रक़म होते ही रहते हैं
शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए
उन को ऐ नर्म हवा ख़्वाब-ए-जुनूँ से न जगा
ज़हर का जाम ही दे ज़हर भी है आब-ए-हयात
फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
सूरत-ए-ज़ंजीर मौज-ए-ख़ूँ में इक आहंग है
सब पेच-ओ-ताब-ए-शौक़ के तूफ़ान थम गए