काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले
झुलसा हुआ मिलेगा वरक़-दर-वरक़ अदब
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आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
तल्ख़-तर और ज़रा बादा-ए-साफ़ी साक़ी
ये फ़ज़ा-ए-साज़-ओ-मुज़रिब ये हुजूम-ताज-ए-दाराँ
सूरत-ए-ज़ंजीर मौज-ए-ख़ूँ में इक आहंग है
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
सँभल न पाए तो तक़्सीर-ए-वाक़ई भी नहीं
ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दोस्त की कशाकश में
अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
क्या हुए बाद-ए-बयाबाँ के पुकारे हुए लोग
जूयान-ए-ताज़ा-कारी-ए-गुफ़्तार कुछ कहो
खुला ये दिल पे कि तामीर-ए-बाम-ओ-दर है फ़रेब