अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
ये वक़्त मेरी रसाई का वक़्त है कि नहीं
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नक़्शे उसी के दिल में हैं अब तक खिंचे हुए
तिलिस्म-ए-शेवा-ए-याराँ खुला तो कुछ न हुआ
वक़्त ही वो ख़त-ए-फ़ासिल है कि ऐ हम-नफ़सो
हवा आशुफ़्ता-तर रखती है हम आशुफ़्ता-हालों को
करम का और है इम्काँ खुले तो बात चले
आतिश-ए-मीना नज़र आई हरीफ़ाना मुझे
नरमी हवा की मौज-ए-तरब-ख़ेज़ अभी से है
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
सुब्ह से चलते चलते आख़िर शाम हुई आवारा-ए-दिल
जब आई साअत-ए-बे-ताब तेरी बे-लिबासी की
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब