तिलिस्म-ए-शेवा-ए-याराँ खुला तो कुछ न हुआ
कभी ये हब्स-ए-दिल-ओ-जाँ खुले तो बात चले
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ख़ुदा का शुक्र है तू ने भी मान ली मिरी बात
दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
फ़िराक़ से भी गए हम विसाल से भी गए
माना कि ज़िंदगी में है ज़िद का भी एक मक़ाम
वो लोग जिन से तिरी बज़्म में थे हंगामे
हरम का आईना बरसों से धुँदला भी है हैराँ भी
काज़िब सहाफ़तों की बुझी राख के तले
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
वो एक रौ जो लब-ए-नुक्ता-चीं में होती है
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
कह सकते तो अहवाल-ए-जहाँ तुम से ही कहते