दिलों की उक़्दा-कुशाई का वक़्त है कि नहीं
ये आदमी की ख़ुदाई का वक़्त है कि नहीं
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ऐसी कोई ख़बर तो नहीं साकिनान-ए-शहर
नावक-ए-ताज़ा दिल पर मारा जंग पुरानी जारी की
दो गज़ ज़मीं फ़रेब-ए-वतन के लिए मिली
एक तरफ़ रू-ए-जानाँ था जलती आँख में एक तरफ़
अलग सियासत-ए-दरबाँ से दिल में है इक बात
हिकायत-ए-हुस्न-ए-यार लिखना हदीस-ए-मीना-ओ-जाम कहना
मेरी वफ़ा है उस की उदासी का एक बाब
ज़ंजीर-ए-पा से आहन-ए-शमशीर है तलब
इस गुफ़्तुगू से यूँ तो कोई मुद्दआ नहीं
बैठो जी का बोझ उतारें दोनों वक़्त यहीं मिलते हैं
शहर जिन के नाम से ज़िंदा था वो सब उठ गए