यात्रा Poetry (page 34)

ज़र्रा इंसान कभी दश्त-नगर लगता है

राम रियाज़

मुस्कुराती आँखों को दोस्तों की नम करना

राम रियाज़

लफ़्ज़ बे-जाँ हैं मिरे रूह-ए-मआनी मुझे दे

राम रियाज़

इस डर से इशारा न किया होंट न खोले

राम रियाज़

गुज़िश्ता अहल-ए-सफ़र को जहाँ सुकून मिला

राम रियाज़

रह-ए-क़रार अजब राह-ए-बे-क़रारी है

राम अवतार गुप्ता मुज़्तर

मैं कैसे तय करूँ बे-सम्त रास्तों का सफ़र

राम अवतार गुप्ता मुज़्तर

ये ज़िंदगी तो मुसलसल सवाल करती है

रख़शां हाशमी

जीना है मुझे

राजेन्द्र मनचंदा बानी

आख़िरी बस

राजेन्द्र मनचंदा बानी

ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

ये ज़रा सा कुछ और एक-दम बे-हिसाब सा कुछ

राजेन्द्र मनचंदा बानी

वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

तमाम रास्ता फूलों भरा है मेरे लिए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

सरसब्ज़ मौसमों का नशा भी मिरे लिए

राजेन्द्र मनचंदा बानी

सफ़र है मिरा अपने डर की तरफ़

राजेन्द्र मनचंदा बानी

रही न यारो आख़िर सकत हवाओं में

राजेन्द्र मनचंदा बानी

न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे

राजेन्द्र मनचंदा बानी

ख़ाक ओ ख़ूँ की वुसअतों से बा-ख़बर करती हुई

राजेन्द्र मनचंदा बानी

इधर की आएगी इक रौ उधर की आएगी

राजेन्द्र मनचंदा बानी

हम हैं मंज़र सियह आसमानों का है

राजेन्द्र मनचंदा बानी

फ़ज़ा कि फिर आसमान भर थी

राजेन्द्र मनचंदा बानी

इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दोस्तो क्या है तकल्लुफ़ मुझे सर देने में

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या

राजेन्द्र मनचंदा बानी

चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं

राजेन्द्र मनचंदा बानी

अजीब तजरबा था भीड़ से गुज़रने का

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दरवाज़े के अंदर इक दरवाज़ा और

राजेश रेड्डी

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