फिर ख़याल आया कि जीना है मुझे
जिस तरह एक थका-माँदा परिंदा
लाख हो बर्फ़-ब-जाँ
लाख हो आहिस्ता सफ़र
इक बुलंदी पे तो होता है ज़रूर
ज़ेर-ए-पर्वाज़ कोई गहरा समुंदर है तो क्या
उसे ऊपर से गुज़र जाना है
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बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत
वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
शफ़क़ शजर मौसमों के ज़ेवर नए नए से
हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
मुझ से इक इक क़दम पर बिछड़ता हुआ कौन था
गुज़र रहा हूँ सियह अंधे फ़ासलों से मैं
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
चली डगर पर कभी न चलने वाला मैं
पैहम मौज-ए-इमकानी में
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला