हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
शफ़क़ शजर तस्वीर बनाने वाला मैं
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मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे
ग़ाएब हर मंज़र मेरा
आज इक लहर भी पानी में न थी
ऐ लम्हो मैं क्यूँ लम्हा-ए-लर्ज़ां हूँ बताओ
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की
शामिल हूँ क़ाफ़िले में मगर सर में धुँद है
इस अँधेरे में न इक गाम भी रुकना यारो
नफ़ी सारे हिसाबों की
शफ़क़ शजर मौसमों के ज़ेवर नए नए से
शोला इधर उधर कभी साया यहीं कहीं