आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
याद तुम अपनी इनायात से बढ़ कर आए
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'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे
बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत
इक ढेर राख में से शरर चुन रहा हूँ मैं
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर
वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे
वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था
ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
सदा-ए-दिल इबादत की तरह थी
तमाम रास्ता फूलों भरा है मेरे लिए
फैलती जाएगी चारों सम्त इक ख़ुश-रौनक़ी